Sunday, November 9, 2008

बूढी आँखें

खाली खाली सी है बूढी आँखें
एक वक्त के इंतज़ार में
बाट जोहती बूढी आँखें
कभी आस के दीप जलाती
कभी नीर की धारा बहाती
वो चुप्पी साधे बूढी आँखें
वो बच्चों सी निर्मल आँखें
डर और अपमान छिपाती आँखें
वक्त का एहसास बताती आँखें
तुम्हारे व्यंग्य छिपाती आँखें
घने अंधेरे में भी टिमटिमाती आँखें
बीते वक्त के जिक्र पर डबडबाती आँखें
कुछ छोटी खुशियाँ चाहती आँखें
सपनों के टुकड़े लिए , अपनों के दुखडे लिए
मुस्कान में अपने आँसू छिपाती आँखें
जो तुमने कभी उन्हें रुलाया
कैसे मै भी रह पाऊँगी
बूढी आँखें से कैसे कह पाऊँगी
वह घृणा कैसे सह पाऊँगी
जो तुमने उन बूढी आँखों को दिए
अन्तिम कुछ स्वप्न भी छीन लिए
कभी टटोल कर देखना बूढी आंखें
आएँगी याद माँ की आँखें









1 comment:

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

बीते वक्त के जिक्र पर डबडबाती आँखें
कुछ छोटी खुशियाँ चाहती आँखें... magar kisi ko ab ye ahsaas bhi kahan rah gayaa hai aaj....apne aur bas apne liye jite ham sab logon ke raaste men to budhe raaste men aate hi dikhte hai..kahan hain ab samvednaa..budhon ke liye....vaise is kvitaa men utni gaharaayi nahin hain....dekho jaisaa lagtaa hai vaisa kahta hun...aap gussa mat ho lenaa....!!