Saturday, November 1, 2008

मुट्ठी भर बातें

काश तुम कभी ये मुट्ठी भर बातें सुन पाते
स्नेह की धागों से रिश्तों को बुन पाते
कभी इन तन्हाईओं को बातों में उलझा पाते
मन की भावनाओं को क्भी तो सुलझा पाते
कण कण कर बिखेर दिया तुमने जीवन
बुन कर कणों को फ़िर एक जीवन बनाते

1 comment:

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

तुम्हारे बिखराए हुए शब्दों के कणों को चुन रहा था मैं...
जो जमी में बेतरतीब थे धूल से सने हुए.....
बड़े प्यार से मैंने उन्हें उठाया वहां से...
हल्का-हल्का झाडा-पोंछा उन्हें...
और थोड़ा थपथपाया...
तभी तो उनका रूप निखर-कर
ऐसा सामने आया......
जमीं पे जब देखा था उन्हें..
कुछ चमकती हुई-सी वस्तू-से लगे थे..
हाथ में जब लिया,तब लगा...
अरे ये तो मोती हैं...
फिर बाहर नहीं छोडा उन्हें...
दिल के भीतर रखकर घर ले आया...
और अब उनका दीदार कैसे कराऊँ...
वो तो अब मेरे मन को मथ रहे हैं...
वो अब मेरी रूह को जज्ब कर रहे हैं....!!